ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥25॥
ध्यानेन-ध्यान के द्वारा; आत्मनि-अपने भीतर; पश्यन्ति-देखते हैं; केचित्-कुछ लोग; आत्मानम्-परमात्मा को; आत्मना-मन से; अन्ये अन्य लोग; साङ्ख्येन-ज्ञान के पोषण द्वारा; योगेन-योग पद्धति द्वारा; कर्म-योगेन-कर्मयोग द्वारा भगवान में एकीकृत होना; च-भी; अपरे–अन्य।
BG 13.25: कुछ लोग ध्यान द्वारा अपने हृदय में बैठे परमात्मा को देखते हैं और कुछ लोग ज्ञान के संवर्धन द्वारा जबकि कुछ अन्य लोग कर्म योग द्वारा देखने का प्रयत्न करते हैं।
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विविधता भगवान की सृष्टि की सार्वभौमिक विशेषता है। वृक्ष के दो पत्ते भी एक समान नहीं होते और उसी प्रकार से दो मनुष्यों के अंगुलियों के निशान भी एक जैसे नहीं होते। समान रूप से सभी जीवात्माएँ अद्वितीय हैं और उनके विशिष्ट लक्षण हैं जिन्हे उन्होंने अपनी जन्म मृत्यु की चक्र रूपी अनूठी यात्राओं से प्राप्त किया है। इसी प्रकार से आध्यात्मिक अभ्यास के क्षेत्र में भी सभी लोग एक प्रकार के आध्यात्मिक अभ्यास की ओर आकर्षित नहीं होते। श्रीमद्भगवद्गीता और अन्य धार्मिक ग्रंथों की सुन्दरता यह है कि ये मनुष्यों को मानव जाति में निहित विविध ताओं का बोध कराते हैं और इन्हें अपने उपदेशों में समायोजित करते हैं।
यहाँ श्रीकृष्ण बताते हैं कि कुछ साधक अपने मन से जूझते हैं और इसे अपने वश में लाने में अति प्रसन्न रहते हैं। वे अपने हृदय में स्थित भगवान का ध्यान लगाने की ओर आकर्षित होते हैं। जब उनका मन उनके भीतर स्थित भगवान में स्थिर हो जाता है तब वे अपने भीतर आध्यात्मिक आनंद से सराबोर हो जाते हैं। अन्य अल्प मात्रा में लोगों को अपनी बुद्धि का प्रयोग करने में संतोष प्राप्त होता है। आत्मा, शरीर और मन, बुद्धि और अहंकार की विशिष्टता का विचार उन्हें अत्यंत उत्तेजित करता है। वे श्रवण, मनन और निध्यासन की प्रक्रिया द्वारा और अधिक दृढ़ विश्वास के साथ आत्मा, परमात्मा और माया के संबंध में ज्ञान विकसित करने में आनंद लेते हैं। जबकि अन्य लोग जब किसी सार्थक कार्य में लीन होते हैं तो वे कृपानिधान भगवान द्वारा उन्हें प्रदत्त गुणों और योग्यताओं को उसकी सेवा में अर्पित करने का प्रयास करते हैं। अपनी श्वास के अंतिम क्षण का भी उपयोग भगवान की सेवा में अर्पित करने से अधिक उन्हें कुछ भी संतुष्ट नहीं कर सकता। इस प्रकार से सभी साधक एवं भक्ति में तल्लीन भक्त अपनी निजी प्रवृत्तियों का उपयोग भी भगवान की अनुभूति के लिए करते हैं। ज्ञान, क्रिया आदि से जुड़े किसी भी प्रयास की पूर्ति तभी होती है जब वह भगवान की भक्ति से युक्त और उसके सुख के लिए हो।
श्रीमद्भागवतम् में वर्णन है:
सा विद्या तन्मतिर्यया
(4.29.49)
"सच्चा ज्ञान वह है जो भगवान के लिए प्रेम उत्पन्न करने में सहायता करता है। कर्म की सार्थकता तभी होती है जब यह भगवान के सुख के लिए किया जाता है।"